Editorial: सीजेआई का संविधान को ही सर्वोच्च बताना मूल्यवान बयान
- By Habib --
- Monday, 19 May, 2025

CJI statement that the constitution is supreme is a valuable statement:
CJI statement that the constitution is supreme is a valuable statement: निश्चित रूप से यह विचारधारा मूल्यवान है कि न्यायपालिका न कार्यपालिका, अपितु संविधान ही सर्वोच्च है। देश में बीते कुछ समय के दौरान ऐसी बहस छेड़ी गई है, जिसमें इन संवैधानिक संस्थानों को एक-दूसरे से बेहतर और ज्यादा सर्वोच्च बताने की होड़ लग गई थी। सर्वोच्च न्यायालय के नए मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति बीआर गवई ने यह बात कहते हुए रेखांकित किया है कि देश का संविधान ही सर्वोच्च है। जाहिर है, उनके द्वारा कही गई बात व्यापक सोच का उदाहरण है। भारत जैसे विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में यह बहस बेमानी ही कही जाएगी कि कार्यपालिका सर्वोच्च है या फिर न्यायपालिका सुप्रीम है या फिर विधानपालिका सबसे बड़ी है। देश की आजादी के लिए लड़े राजनेताओं और फिर संविधान का निर्माण और उसे स्वीकार करने वाले प्रतिनिधियों ने कभी इसका अहसास नहीं कराया था कि इन तीनों संस्थानों में से कोई एक सर्वोच्च है।
उन्होंने इन तीनों और संविधान को ही सर्वोच्च माना था। बेशक, कानूनों के संबंध में कहा जाता है कि वे सिर्फ कागज पर लिखी इबारतें हैं, हालांकि जब उन्हें लागू किया जाता है और जो उन्हें लागू करता है, उसकी मंशा से वे बड़े और निम्न पुकारे जा सकते हैं। न्यायमूर्ति बीआर गवाई ने हालिया परिस्थितियों का अध्ययन किया है, जब देश में विभिन्न उच्च पदों पर बैठे महामहिमों के बयानों से विचित्र स्थिति पैदा हो गई थी। बेशक, हर संस्थान में सुधार की जरूरत है, लेकिन यकीनन सर्वोच्चता की ऐसी चाह अब समाप्त हो जानी चाहिए, क्योंकि सभी संविधान से संचालित हैं।
बीते कुछ समय के दौरान जिस प्रकार कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच टकराव की स्थिति पैदा हुई है, वह चिंता का विषय बन गई थी। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने हाईकोर्ट के जज के घर से जला कैश मिलने के मामले मेें कोई एफआईआर दर्ज न होने पर सवाल उठाए थे, वे उचित ही थे। हालांकि अब उस मामले में भी संबंधित जज पर कार्रवाई सुनिश्चित हो रही है, यानी कोई भी अपराध करके बच नहीं सकता। पूछा जा रहा था कि क्या वास्तव में ही देश में एक जज संविधान से ऊपर है और उनके मामले में केस दर्ज नहीं हो सकता। गौरतलब है कि केंद्र सरकार के बीते कार्यकाल में तत्कालीन केंद्रीय कानून मंत्री ने कॉलेजियम प्रणाली पर सवाल उठाए थे। उन्होंने न्यायपालिका के अंदर झांकने की कोशिश करते हुए यहां संशोधन की गुंजाइश पर जोर दिया था।
हालांकि यह मामला इतना तूल पकड़ गया कि बीच राह ही उन केंद्रीय कानून मंत्री को बदल दिया गया और एक नए कानून मंत्री को नियुक्त कर दिया गया। उसके बाद उन्होंने कभी ऐसे तीखे सवाल नहीं पूछे, जिनको पूछना देश में अपराध की भांति है। अब उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने इसका साहस किया है तो इसे कई संदर्भों में अपने दायरे से बाहर जाकर कही गई बात माना गया। हालांकि अब सीजेआई की टिप्पणी को गंभीरता से समझे जाने की जरूरत है।
लोकतांत्रिक देश में संविधान ही सर्वोच्च होता है और सभी प्रतिष्ठान उसके मार्गदर्शन में काम करते हैं, तब इस प्रकार की राय रखना कि कोई किसी को दबा रहा है, अनुचित और अप्रासंगिक है। एक प्रसंग का जिक्र उचित है, जब हाईकोर्ट के न्यायाधीशों के स्थानांतरण के लिए की गई सिफारिशों को मंजूरी देने में देरी होने पर सर्वोच्च न्यायालय के दो जजों की पीठ ने केंद्र सरकार को चेतावनी दी थी कि हमें ऐसा स्टैंड लेने को मजबूर न करें जो सरकार को असहज कर दे। माननीय सर्वोच्च न्यायालय देश में संविधान का रखवाला है लेकिन इस पर बेहद विनम्रता से बहस होनी चाहिए कि आखिर इस तरह की शब्दावली के प्रयोग की क्या जरूरत पड़ गई, जिसमें सरकार को यह कहा जाए कि सर्वोच्च न्यायालय को ऐसा स्टैंड लेने को मजबूर न किया जाए। कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच हितों को लेकर यह टकराव पहले भी होते रहे हैं, लेकिन आजकल जिस प्रकार से दोनों एक-दूसरे के आमने-सामने हैं, वह गंभीर मामला है।
हालांकि यह भी सही है कि दोनों की शक्तियों को लेकर उपजे सवालों पर बहस हो और वह किसी नतीजे पर पहुंचे। सरकार अगर जजों की नियुक्ति में पारदर्शिता लाना चाहती है तो इसमें न्यायपालिका को अपने अधिकार क्षेत्र में दखल क्यों नजर आता है। सर्वोच्च न्यायालय कॉलेजियम जजों की नियुक्ति पर अपना सर्वाधिकार कायम रखना चाहता है, लेकिन यह भी सच है कि इन नियुक्तियों में पसंद और नापसंद बहुत चलती है। वह चाहे कार्यपालिका है या फिर विधानपालिका या फिर न्यायपालिका, सभी का एकमात्र मकसद जनता की सेवा करना है। जाहिर है, यह सोच अपने आप में पूरे देश की आत्मा का प्रतिबिंब है। भारत में यह विचार ही पैदा नहीं हो सकता है कि कोई एक प्रतिष्ठान इतना प्रबल होगा कि उसके समक्ष दूसरे दमित हो जाएंगे। फिर चाहे वह न्यायपालिका ही क्यों न हो। न्यायपालिका को अपने उस सुरक्षित आवरण से बाहर आने की जरूरत है, जिसमें उससे सवाल पूछना अपराध माना जाता है।
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